Sunday, July 09, 2017

जब जब बाजै खँजड़िया

-डॉ0 जगदीश व्योम

लोक जीवन में जन्मोत्सव के गीतों को सोहर कहा जाता है। किसी स्त्री के गर्भवती होने पर अथवा शिशु के जन्म के उपरान्त विशेष रूप से छठी तथा बरहीं के दिन सोहर नामक गीत सोल्लास गाये जाते हैं। सोहर गाने की प्रथा मांगलिक है और प्रायः सभी हिन्दी भाषा-भाषी प्रदेशों में इसका प्रचलन है। सोहर की शाब्दिक व्युत्पत्ति संस्कृत भाषा के सूतिकागृह और प्राकृत भाषा के सुइहर से बताई जाती है। सोहर को सोहिली या सोहिला भी कहते हैं।
मध्य-युगीन हिन्दी साहित्य में सोहर के लोक प्रचालित काव्य रूप तथा सोहर छन्द का उपयोग पर्याप्त मात्रा में किया गया है। कबीरदास की अगाध्ा मंगल तथा गोस्वामी तुलसीदास की जानकी मंगल, पार्वती मंगल तथा रामलला नहछू नामक काव्य कृतियाँ उल्लेखनीय हैं। सोहर वस्तुतः अवधी भाषी क्षेत्र का अपना लोकगीत है। अवध के सामाजिक जीवन में सर्वत्र राम रमे हुए है। बिना राम के तो अवध्ा प्रान्त का लोकमानस शायद चलना ही नहीं जानता; सभी के राम हैं और सब राम के हैं। इसीलिए जब लोकमानस, लोक साहित्य के माध्यम से प्रतिबिम्बित होता है तो उसमें राम की उपस्थिति प्रायः सर्वत्र दिखाई देती है।
लोकगीत हमारी प्राचीन संस्कृति के सहज प्रहरी हैं। मानव समाज के रीतिरिवाज एवं जीवन की अनायास प्रवाहात्मक अभिव्यक्ति लोकगीतों में मिलती है, परन्तु “भारतीय लोक-संस्कृति के संरक्षक, प्रतिष्ठापक ये ग्रामीण, परमहंस अथवा अबोध बालक की भाँति स्वयं अपने को कुछ भी नहीं समझा करते। इनके मर्म और वास्तविक स्वरूप को अध्ययन मननशील विद्वान ही समझते हैं।”1 लोकसाहित्य के पुरोधा पं. रामनरेश त्रिपाठी के अनुसार- “ग्रामगीत प्रकृति के उद्गार हैं। इनमें अलंकार नहीं, केवल रस है! छन्द नहीं, केवल लय है!! लालित्य नहीं, केवल माधुर्य है !! ग्रामीण मनुष्यों के स्त्री-पुरुषों के मध्य में हृदय नामक आसन पर बैठकर प्रकृति गान करती है। प्रकृति के वे ही गान ग्रामगीत हैं।”2
         (रामनरेश त्रिपाठी, कविता कौमुदी, भाग-5, प्रस्तावना, पृ0-1-2)
लोकगीतों में मानव की भावनाएँ सहजता एवं ईमानदारी के साथ व्यक्त हुई हैं, कृत्रिमता तो लोकगीतों के पास फटकने तक नहीं पाती।
यूँ तो पुरुषों तथा स्त्रियों के अपने-अपने लोकगीत हैं, परन्तु भावनाओं का सहज प्रवाह वेदनाजन्य अनुभूति तथा पीड़ा की सघनता नारी गीतों में अध्ािक कमलती है। संभवतः इसका कारण यही रहा होगा कि प्राचीन काल से ही हमारा समाज पुरुष-प्रधान समाज रहा है। नारियों की भावनाओं को हमेशा दबाया जाता रहा तथा नारी को सदैव उपेक्षिता रखा गया। नारी को कभी अपने सतीत्व की अग्पि-परीक्षा देनी पड़ी तो कभी उसे सौत को सहना पड़ा। पुत्री जनने पर उसे व्यंग्य-वाण सहने पड़े तो कभी निस्सन्तान होने पर उसे कलंकित होना पड़ा। नारी ने अपने माता-पिता के घर मे पुत्री होने की वजह से उपेक्षा को सहन किया तो ससुराल में कारण-अकारण उसे क्रूर अत्याचारों को सहना पड़ा परन्तु इतना सब सहने के बाद भी उसने कभी मुँह से आह तक नहीं की। प्रकृति ने जब स्वयं नारी की इस असहनीय पीड़ा को निरखा तब अनयास ही “यह हाहाकार स्त्री कण्ठ से आप ही आप फूट है। दुखिया बेचारियों की पुकार जब किसी ने न सुनी तब उनके हृदय की वेदना हलकी करने के लिए कविता देवी ने उन पर दया करके स्वयं यह गीत गाया है....... न जाने कितने दिनों से विवाह के स्वार्थी दलालों, अगुवा और तथाकथित समाज के पथ-प्रर्दशकों के विरुद्ध स्त्रियाँ तो खलिहानों, गली-कूँचों में पूरे जोर से चिल्ला रही हैं, पर पुरुषों ने क्या ध्यान दिया? स्त्रियों के इस हाहाका को किसी ने सुना ! ......” स्त्रियों के इसी हाहाकार, चीत्कार, वेदना, हर्ष आदि की झाँकी लोकगीतों में स्पष्टतः देखी जा सकती है। स्त्रियों की अभिव्यक्ति के तो लोकगीत पर्याय से हो गये हैं। ऐसा लगता है कि स्त्रियाँ बिना लोकगीतों के कुछ कहना ही नहीं जानतीं। वे जो कुछ कहती हैं, लोकगीतों के माध्यम से ही कहती हैं।
लोकगीत प्रकृति के उद्गार हैं, इनके माध्यम से पूरी प्रकृति ही बोलती दिखाई देती है। प्रकृति मानव के साथ उसके सुख में सुखी और दुःख में दुःखी होती है। विरहिणी अपना संदेश पशुओं, पक्षिओं, हवाओं, सूरज, चाँद के माध्यम से प्रिय तक पहुँचाती है। पशु-पक्षी तो लोकमानव के चिर साथी हैं। लोकगीतों में कहीं ये (पशु-पक्षी) सामान्य मानव की तरह सुख-दुःख के भागीदार हैं तो कहीं ये प्रतीक रूप में दिखाई देते हैं। प्रतीकों का प्रयोग वातावरण के संयोजन एवं भवनाओं को और अधिक तीव्रता प्रदान करने में सहायक सिद्ध हुआ है। प्रतीकों के माध्यम से लोकगीतों में कहीं सामन्तवादी व्यवस्था से त्रस्त जन-सामान्य की आह है तो कहीं अपनत्व की भारी-भरकम शिला से दबकर नारी हृदय की करुण कराह, कहीं कोमल भावनाओं के कुचले जाने की कसक है तो कहीं सपनों के छिन जाने की सिसकन।
कुछ लोकगीत तो इतने कारुणिक हैं कि उन्हें सुनने के बाद पत्थर हृदय भी बिना अश्रु गिराये रह नहीं सकता। लगता है कि इन लोकगीतों में प्रकृति स्वयं रोयी है। उसने अपने आँसुओं से समय के दर्पण को निर्मल कर दिया है, इसीलिए इसमें युग-युग की झाँकियाँ प्रतिबिम्बित होती दिखाई पड़ जाती हैं। इन झाँकियों में यूँ तो हास-परिहास, आह, कराह, उत्पीड़न सब कुछ है परन्तु स्वार्थ की वार-वधू हर युग में मुखर दिखाई देती है। इतनी कि उसके लिए निरीह मानवता की आह-कराह भी उसके मनोरंजन का साध्ान मात्र बन जाती है। जब इस तरह का कोई दृश्य समय का आवरण चीर कर लोकगीतों के माध्यम से हमारे सामने आता है, तो कौन ऐसा भावुक हृदय होगा जो उससे प्रभावित न हो और कौन ऐसी लेखनी होगी जो उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप दो शब्द लिखने को मचल न उठती हो।
मानव सदैव से स्वार्थी रहा है। अपने उद्देश्य की प्राप्ति तक उसका जो व्यवहार होता है, प्रायः फल की प्राप्ति पर उसमें परिवर्तन आ जाता है-
काज परे कछु और है, काज सरे कछु और।
रहिमन भँवरी के परे, नदी सिरावत मौर।।
पुत्र प्राप्ति की आकांक्षा प्रत्येक दम्पति रखता है, इसके लिए वह कुछ भी करने को तैयार रहता है। यह सर्वविदित है कि राजा दशरथ के कोई संतान न थी, उन्हों पुत्र प्राप्ति हेतु विशाल यज्ञ किया था। 
-डॉ० जगदीश व्योम
बी-12ए / 58 ए
सेक्टर-34, नोएडा 
पिन कोड-201301




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