-डा० जगदीश व्योम
हिन्दी साहित्य में "मुक्तछन्द" महाप्राण निराला की देन है। कविता में छन्द का बड़ा महत्व है। छन्द का आशय है अनुशासन अर्थात कविता में अनुशासन हो वही कविता कविता है। जिस कविता में छन्द नहीं हो अर्थात कोई अनुशासन नहीं हो उसे कविता नहीं कहा जा सकता, गद्य कह सकते हैं उसे। लेकिन एक समय हिन्दी साहित्य में ऐसा भी आया जब कविता में छन्द पर इतना अधिक ध्यान दिया जाने लगा कि कविता में छन्द तो रहा पर कविता गायब सी होने लगी। निराला जी ने तब "मुक्तछन्द" की घोषणा की अर्थात कविता को पारम्परिक छन्दों के बंधन से मुक्ति दिलाई। "छन्दमुक्त" शब्द हिन्दी कविता के लिए नहीं आया है, यह किसी भ्रम के कारण प्रयुक्त होने लगा, सही शब्द "मुक्तछन्द" है।
अर्थात कविता को किसी छन्द विशेष में ही नहीं लिखना है बल्कि आप अपने अनुरूप छन्द में कविता लिख सकते हैं पर उसमें कोई लय, प्रवाह अवश्य रहे। यदि लय और प्रवाह या अन्तवर्ती लय कविता में नहीं है तो उसे कविता नहीं कह सकते। निराला जी की किसी भी कविता में लय और प्रवाह देखा जा सकता है। जैसे, निराला जी की एक कविता है--
वह आता
दो टूक कलेजे कस करता
पछताता पथ पर आता
पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक
चल रहा लकुटिया टेक
मुट्ठी भर दाने को
भूख मिटाने को
मुँह, फटी पुरानी झोली का फैलाता
दो टूक कलेजे के करता
पछताता पथ पर आता
-(सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला)
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शशिकान्त गीते --
मेरी जानकारी में मूलरूप से मुक्तछंद में एक छांदसिक लय होती है मगर वह पारम्परिक छंद नहीं होता. यह लय बाह्य भी होती है. इसके विपरीत मुक्तछंद विचार या अर्थ की अंतर्वर्ती लय पर केन्द्रित होता है. कह नहीं सकता मेरी यह जानकारी सही भी है या नहीं.
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अमिताभ त्रिपाठी---
डा० व्योम जी, आपने चर्चा छेड़ी है तो मुझे भी कुछ कहने का मन हुआ। प्रायः लोग मुक्तछन्द और छन्द मुक्त को एक ही समझ लेते हैं। मेरे मित्रों के बीच भी इस विषय पर चर्चा हुई है। मुक्तछन्द की परम्परा में पहला नाम निराला का आता है और यदि मैं भूल नहीं कर रहा हूँ तो उन्होंने ही इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग किया है। "लिखता अबाध गति मुक्त-छन्द, पर सम्पादकगण निरानन्द...." (सरोज स्मृति)। ध्यान देने योग्य है कि विशेषण-विशेष्य की दृष्टि से भी देखें तो मुक्त-छन्द में भी छान्दसिकता संलिप्त है लेकिन इसकी प्रकृति मुक्त है। सम्भवतः यह मुक्ति तत्कालीन शास्त्रीयता से रही होगी। उस पुरातनपन्थी अवधारणा से जिसमें कुछ निश्चित छ्न्दों (मीटर्स) में ही रचना करने को कवित्व माना जाता था। उस जड़ता को तोड़ने के लिये मुक्तछन्द का आविष्कार या विधान हुआ। किन्तु क्योंकि छन्द एक प्रकार का शब्दानुशासन या लयानुशासन है इसलिये मुक्तछन्द कविताओं में भी वह अनुशासन बना रहता है। निराला की प्रभूत रचनायें इसका उदाहरण हैं।
अब कब और किस सुविधा के अन्तर्गत मुक्तछन्द उलट कर छन्दमुक्त हो गया यह शोध का विषय नहीं रहा। क्योंकि नई कविता के बाद अकविता का भी आन्दोलन चला और ऐसे पूर्वाग्रह भी देखने को मिले जो स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होने वाले अनुप्रासों को भी सायास तोड़ देते थे कि कहीं इससे कविता? में छन्द की गन्ध न आ जाय।
अस्तु छन्दमुक्त सृजन मेरी दृष्टि में एक अनुशासनहीन रचना प्रक्रिया है जिसमें गद्य को छद्मरूप से कविता का आकार दिया जाता है। विचारवान लोग इसे वैचारिक कविता कहते हैं जिससे ऐसा लगता है शेष रचनायें विचारहीन या अवैचारिक होती हैं।
यह सत्य है कि का्व्य को परिभाषित करना अत्यंत कठिन है लेकिन उसका अभास पाना उतना कठिन नहीं है। गद्य में भी काव्य रचना हो सकती है। आचार्य चतुरसेन का गद्यकाव्य दृष्टव्य है। अतः मुक्तछन्द गद्यकाव्य का ही एक छद्मनाम है मेरे मत से। परन्तु संकोच के साथ लिखना पड़ रहा है कि छ्न्दमुक्त रचनाओं में काव्य के भी दर्शन दुर्लभ होते जा रहे हैं, चुट्कुलों को छोड़ कर जिसे हास्यरस के कारण काव्य की प्रतिष्ठा मिल जाती है।
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1 comment:
अच्छी जानकारी
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