-डॉ0 जगदीश व्योम
जीवन में नियम और अनुशासन का पालन स्वाभाविक जीवन जीने के लिए आवश्यक है। अनुशासन हीनता और एक सीमा से अधिक अनुशासन का पालन दोनों ही जीवन की स्वाभाविक गति का संतुलन बिगाड़ देते हैं। कभी-कभी अत्यधिक उदारता भी गले की हड्डी बन जाती है। कहा भी गया है कि ‘अति सर्वत्र वर्जयेत’।
प्राचीन उज्जैन नगरी के सुप्रसिद्ध राजा भोज बहुत बड़े साहित्य प्रेमी थे और वे कवियों और साहित्यकारों का बड़ा आदर करते थे। वे स्वयं भी बहुत अच्छे कवि थे। उनके दरबार में कवियों का बहुत सम्मान होता था। कोई भी कवि उनके दरबार में कविता सुनाने जा सकता था। कविता सुनाने पर कवि को अच्छा-खासा पुरस्कार दिया जाता था।
दूर-दूर तक ख्याति फैल चुकी थी। एक से एक अच्छे कवि राजा भोज के दरबार में आते और अपनी कविता सुनाकर बहुत सारा धन पुरस्कार में प्राप्त करते। कभी-कभी ऐसे भी कवि दरबार में आ जाते जिनकी कविता में न भाव की सुन्दरता होती न भाषा की और न ही छन्द का निर्वाह होता फिर भी ऐसे तुक्कड़ कवि भी भरपूर ईनाम पाते और दो-चार दिन दरबार में मेहमान बनकर षटरस व्यंजनों का आनन्द लेते।
बात धीरे-धीरे राज्य के दूर-दराज के इलाकों में फैल गई कि कैसी भी कविता राजा भोज के दरबार में सुनाकर पुरस्कार ले आओ। पुरस्कार सबको मिलता है। जनता अकर्मण्य होने लगी। मजदूर मजदूरी करने के स्थान पर कविता गढ़ते और दिन भर मजदूरी करके जितना कमाते थे उस से कई गुना ज्यादा धन ले आते। किसान खेती करने की जगह कविता रचते। भिखारी भीख माँगने की जगह अब कविता सुनाकर अपना गुजारा करते। ‘सब धान बाइस पसेरी हो गए’ अच्छे साहित्यकार और कवि कविता के साथ हो रहे इस मखौल को सुन सुनकर बहुत दुखी थे परन्तु राजा से यह बात कौन कहे।
घासीराम घसेरे के दिन बड़ी तंगी में कट रहे थे। बेचारा दिन भर घास छीलता और शाम को मंडी में उसे बेचने से जो कुछ पैसे मिलते उसी से अपने परिवार के लिए आटा, दाल खरीदता। एक दिन जब वह बाजार में घास बेचकर अपनी झोंपड़ी में लौटा तो उसकी पत्नी के चेहरे पर कुछ अजीब सी चमक थी। घासीराम के लिए यह नई बात थी क्योंकि उसने तो विवाह के बाद पत्नी के चेहरे पर अब तक गुर्राहट ही देखी थी। घासीराम कुछ पूछता, इससे पहले ही पत्नी के मुँह से बात छलक कर बाहर आ गई-
“अइसे कब लौं घास छील्त रहिअउ?“ लोटे में ठंडा पानी देते हुए पत्नी ने कहा तो घासीराम उसकी ओर देखता रह गया।
“मैं तेरा मतलब नहीं समझा.......आखिर तू क्या कहना चाहती है?..........अरे भागवान! घसेरा घास नहीं छीलेगा तो और क्या करेगा.......कहीं राजपाट रखा है?...........या अलादीन का चिराग रखा है जिसे रगड़ दूँगा तो सोने-चाँदी का ढेर लग जाएगा....।“ घासीराम ने हँसते हुए कहा।
“अरे हमार दिमाक मइँ आजु एक अइसी जुगति आई हइ जाइ सुनिअउ तउ कहिअउ कि हाँ......“
“अच्छा ठीक है......तू बता............“
“राजा भोज के दरबार मइँ कविता सुनाइ आवौ औ इत्तो धनु लै आवउ कि सालुभरि गुजर होति रहिअइ“ पत्नी ने प्रस्ताव रखा।
“अरे तेरा दिमाग तो ठीक है?...........तू जानती भी है कि कविता क्या होती है?........अरे हम घसेरे कविता क्या जाने?.......पागल कहीं की......“
“ठीक हइ, हम पागलइ सही........हमारी बात मानन मइँ आखिर बुराई का हइ?.....................रमकन्ना इक्काबारो कल्लि गयो तो दरबार मइँ......कविता सुनाइ के आओ हइ, देखि अइयौ बाके घरइ..........इत्ते रुपिया लै आओ हइ दरबार सइ.......तुम का बाऊ तै गये बीते हउ?..........“ पत्नी ने दानों हाथों को समानान्तर करते हुए धन की मात्रा बतायी।
घासीराम अब निरुत्तर था। पत्नी ने तर्क ही ऐसा दिया था। उसके मन में बार-बार एक ही प्रश्न उठ रहा था कि “रमकन्ना और कविता......“
एक दिन घासीराम अपने तीन और घसेरे साथियों के साथ जंगल में घास छील रहा था। पत्नी की कही बात को उसने उसके सामने तो टाल दिया था लेकिन बात उसके मन में रह-रहकर गूँज रही थी।
चिलम में दम लगाते हुए घासीराम बोला- “भाइयो! राज भोज के दरबार में कविता सुनाओगे?“
“का कही भैया...? कविता और हम लोग...........घासी भैया, का आजु गाँजा पी के आये हउ का......?“ अन्य घसेरों ने घासीराम की ओर आश्चर्य से देखते हुए कहा।
“नहीं भाइयो!........गाँजा-आँजा नहीं.....मेरी बात ध्यान से सुनो........जब जैसी हवा बहती हो, उसी के अनुसार चलना चाहिये और मौके का फायदा उठाना चाहिये।......हमारा पड़ोसी ‘रमकन्ना’ कविता सुना सकता है तो हम सब क्यों नहीं......? चलो मेरे साथ......अगर हम लोग अलग-अलग कविता नहीं बना पाएँगे तो चारों मिलकर एक कविता तो बना ही डालेंगे.......“ -कहते हुए घासीराम ने खुरपी और चादर वहीं फेंकी और चल दिया दरबार की ओर।
घासीराम के तीनों साथी भी उसके संग हो लिए। चलते-चलते वे चारो सोच रहे थे कि आखिर कविता बनाई कैसे जाये? वे तो जानते ही नहीं थे कि आखिर कविता होती क्या है? बस कविता का नाम सुना था।
एक घसेरे के दिमाग में अचानक कुछ सूझा और वह फटाक से बोला- “अरे कविता बनाने में क्या है?.......जो कुछ दिखाई दे उसे कह डालो ......यही कविता हो जाएगी।“ चारांे घसेरे दरबार की ओर चलते चले जा रहे थे। उन्हें पूरा भरोसा था कि दरबार तक पहुँचते-पहुँचते कविता मिल ही जाएगी।
चलते-चलते वे चारों एक गाँव के पास पहुँचे जहाँ एक बूढ़ा व्यक्ति चरखा चला रहा था। चरखे से ‘मन्न मन्न......’ की ध्वनि आ रही थी। इसे सुनते ही एक घसेरा अचानक खुशी से चीख पड़ा- “मिल गई....मिल गई.......मेरी कविता तो मिल गई......।“
“क्या मिल गई.......अरे भाई सुना तो देखें तेरी कैसी कविता है?“ तीनों घसेरे उत्सुकता के साथ उससे पूछने लगे।
“भैया मेरी कविता है- ‘मन्न-मन्न रहँटा मन्नाइ.....।“ हाँ भाई तेरी कविता तो बन गई। अब हमारी बारी है.......चलो आगे ढ़ूँढ़ते हैं कही न कहीं तो आखिर मिलेगी ही।
थोड़ी दूर चले ही थे कि एक तेली तेल पेरने का कोल्हू चला रहा था। बैल चुपचाप चल रहा था और रौंछ भी कर रहा था। दूसरे घसेरे के दिमाग में बात कौंधी और वह चिल्लाया “भैया मेरी भी मिल गई....“
“हाँ सुना भैया, तेरी कविता कैसी है .......हम भी तो सुने....“ तीनों घसेरे एक साथ बोल पड़े।
“पहले तू अपनी सुना“ -पहले घसेरे से दूसरे ने कहा।
“मन्न-मन्न रहँटा मन्नाइ.....“
“तेली को बद्धा रौंछ कराइ......“
“हाँ भाई! तुम दोनों की कविता तो बन गई। चलो और खोजते हैं.....मिलेगी हमारी भी.....“ तीसरे और चौथे घसेरे ने पूरी आशा के साथ कहा और आगे के रास्ते पर चल दिये।
थोड़ा सा आगे चले ही थे कि एक पेड़ के नीचे एक झोंपड़ी में एक आदमी बैठा हुआ चरखा कात रहा था मगर उसकी आँखें बन्द थीं। तीसरे घसेरे को लगा कि कविता यहाँ है। उसने भी थोड़ी देर के लिए आँखें बन्द कीं और मानों कविता की डोरी को अपने हाथ में पकड़ लिया......वह खुशी से चिल्लाया- “मेरी भी मिल गई......“
“हाँ, सुना भैया!“ तीनों ने खुश होकर कहा।
“पहले तुम दोनों सुनाओ...“ तीसरे ने कहा।
“मन्न-मन्न रहँटा मन्नाइ.....“
“तेली को बद्धा रौंछ कराइ......“
“चरखा कातत आँखें बन्द......“
अब केवल घासीराम रह गया था जिसकी कविता अब तक नहीं बन पाई थी। बार-बार वह कोशिश करता परन्तु कविता रूपी चिड़िया उसकी पकड़ में नहीं आ पा रही थी।
दरबार निकट आता जा रहा था। घासीराम को अपने ऊपर झुँझलाहट हो रही थी और गुस्सा भी आ रहा था। उसी ने तो इन तीनों को कविता सुनाने की बात बताई, इन्हें तैयार करके लाया और आखिरकार वही फिसड्डी रह गया।
जब उसे कविता नहीं मिली तो वह लगा राजा भोज के बारे में सोचने। उसके तीनों साथी तभी उससे बोले- “तुम चाहो तो वापस लौट जाओ..........हम तो दरबार में जरूर जायेंगे।“
घासीराम ने उनकी बात का उŸार नहीं दिया और वह राजा और राजा के द्वारा दिये जाने वाले पुरस्कार के बारे में सोचने लगा। वह सोचने लगा-
“राजा भोज भी कैसे मूर्ख हैं......अरे हम घास छीलने वाले लोग कविता क्या जाने.......ये बेकार की बातों को कविता मानकर जो राजा इतना धन बाँटता रहता है, मेरी समझ में तो ऐसा राजा मूर्ख है।“ यह सोचते हुए वह लौट ही रहा था कि उसके दिमाग में कुछ कौंधा........वह पलटकर चिल्लाया-
“अरे, मुझे भी मिल गई......।“
अब चारों खुश थे।
“हाँ घासी भैया! सुनाओ तो अपनी कविता.....“ कहकर तीनों ने अपनी-अपनी कविता की लाइने सुनाईं-
“मन्न-मन्न रहँटा मन्नाइ.............“
“तेली को बद्धा रौंछ कराइ......“
“चरखा कातत आँखें बन्द..........“
“भोजराज तुम मूसरचन्द............“
चारों घसेरे अब कवि हो चुके थे। उनकी चाल में भी अब फर्क आ गया था। आखिरकार दरबार में कविता सुनाने के लिए जा रहे थे।
जैसे ही मुख्य द्वार पर पहुँचे कि उनकी फटी-फटाई वेशभूषा देख कर द्वारपाल ने उन्हें द्वार पर ही रोक लिया और दरबार में आने का प्रयोजन पूछा।
“हम कवि हैं......और महाराज के दरबार में कविता सुनाने आये हैं“
“अच्छा......!.......ठीक है......पहले सुनाओ तो........देखें तो कि तुम्हारी कविता दरबार में सुनाने लायक है भी कि नहीं!“ चारों घसेरे एक दूसरे का मुँह ताकने लगे और कविता सुनाने के लिए अपने को तैयार करने लगे।
पहले ने अपनी कविता सुनाई- “मन्न मन्न रहँटा मन्नाइ।”
दूसरे ने अपनी पंक्तियाँ जोड़ीं- “तेली को बद्धा रौंछ कराइ।”
तीसरे कवि ने कविता सुनाई - “चरखा कातत आँखें बन्द।”
चौथे ने अपनी कविता सुनाई- “भोजराज तुम मूसरचन्द।”
जैसे ही चौथे घसेरे कवि ने अपनी कविता पढ़ी तो द्वारपाल के माथे पर बल पड़ गए। वह सोचने लगा कि इसकी कविता तो महाराज के नाम की खिल्ली उड़ाने वाली है।
द्वारपाल कुछ देर तक सोचता रहा फिर बोला- “तुम तीनों कवि दरबार में कविता सुनाने के लिए जा सकते हो।”
“और मैं...........मेरा क्या होगा?” चौथे कवि ने गिड़गिड़ाते हुए निवेदन किया।
“नहीं भाई! तुम नहीं जा सकते........तुम्हारी कविता ठीक नहीं है।”
चौथा घसेरा बहुत दुखी हो गया। वह द्वारपाल के हाथ-पाँव जोड़ने लगा कि किसी तरह से वह उसे भी दरबार में पहुँचा दे और कविता सुनाने का मौका दिलवा दे।
द्वारपाल ने उसकी कविता में सुधार करने की दृष्टि से कुछ देर सोचा फिर वह बोला कि तुम अपनी कविता की जगह यह पढ़ना-
“हरि के बिना सब बेकार छन्द।”
अब चारों घसेरे खुश थे कि दरबार में अपनी-अपनी कविता सुना सकेंगे और ईनाम पाएँगे।
चारों ने एक बार फिर अपनी-अपनी पंक्तियाँ जोड़ीं-
“मन्न-मन्न रहँटा मन्नाइ..........................“
“तेली को बद्धा रौंछ कराइ...................“
“चरखा कातत आँखें बन्द........................“
“हरि के बिना सब बेकार छन्द...............“
दरबार में पहुँचकर चारों ने राजा भोजराज को सिर झुकाकर प्रणाम किया। राजा ने आदर देते हुए उन्हें आसन दिया और अपनी-अपनी कविता सुनाने के लिए कहा-
चारों कवियों ने अपनी-अपनी कविता प्रस्तुत की-
“मन्न-मन्न रहँटा मन्नाइ..........................“
“तेली को बद्धा रौंछ कराइ...................“
“चरखा कातत आँखें बन्द........................“
“हरि के बिना सब बेकार छन्द...............“
महाराज बड़े ध्यान से कविताएँ सुन रहे थे। जैसे ही चौथे कवि ने अपनी कविता सुनाई तो उनके मन में विचार आया कि ये चारों एक ही मानसिक स्तर के हैं। इनकी कविता भी एक ही स्तर की होनी चाहिये परन्तु पहले तीन का स्तर तो ठीक है परन्तु चौथा कुछ अलग-अलग लग रहा है....अवश्य ही दाल में कुछ काला है, राजा भोजराज ने पलभर सोचा और फिर निर्देश दिया- “पहले तीन कवियांे को पुरस्कार दिया जाय और चूँकि चौथे कवि की कविता अच्छी नहीं है इसलिए इन्हें कुछ भी नहीं दिया जाएगा।“
बेचारा घासीराम बहुत दुखी हो गया। वह समझ रहा था कि इन तीनों से अधिक ईनाम उसे ही मिलेगा क्योंकि उसकी कविता द्वारपाल ने बनवाई है। राजा का निर्णय सुनकर हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगा-
“महाराज!.........मेरी असली कविता ये नहीं है..........ये तो द्वारपाल ने बनवा दी थी........मेरी अपनी कविता तो दूसरी थी।“
“तुम अपनी कविता सुनाओ“ महाराज ने निर्देश देते हुए कहा।
“नहीं महाराज!.......मैं वह कविता आपको नहीं सुना सकता.......वह अच्छी नहीं है.........सुनकर आप नाराज भी हो सकते हैं।“ घासीराम घसेरे ने गिड़िगिड़ाते हुए विनती की।
“हम नाराज नहीं होंगे.......तुम अपनी कविता सुनाओ.......हम तो कवियों का सम्मान करते हैं.......मगर उनका ही जो अपनी कविता सुनाते हैं, दूसरों की नहीं.....इसलिए तुम अपनी कविता सुनाओ।“ राजा भोजराज ने पुनः कहा।
“महाराज हम चारों तो घसेरे हैं, ऐसे ही मन में विचार आया कि जब आप कविता के नाम पर कुछ भी सुना देने से पुरस्कार दे देते हैं तो फिर और कोई काम करने की क्या जरूरत है?.......यही सोच कर हम चारों यह कर बैठे और चारों ने एक साथ कविता बना ली।......इन तीन की तो बन गई थी पर मेरी कविता बन ही नहीं रही थी इसलिए........“
“इसलिए क्या?“ महाराज ने प्रश्न किया।
“महाराज !.......इसलिए मेरे मन में यह विचार आया कि जो राजा किसी भी तरह की कविता पर पुरस्कार दे देता है, यह नहीं देखता कि वह कविता है या बकवास? तो फिर........तो फिर ऐसा राजा भला बुद्धिमान कैसे हो सकता है?............हम जैसे घसेरे भी अपना काम छोड़छाड़ कर कविता के नाम पर खेल करें और पुरस्कार पाने लगें तो फिर राज्य का भविष्य भला क्या होगा?.........और जो इतना भी नहीं जानता है वह हमारे लोक समाज में ‘मूसरचन्द’ ही कहलाता है, यही सोचकर हमने तुकबंदी करने का अपराध कर डाला।“ घासीराम बेचारा परेशान हो रहा था।
“अच्छा ठीक है, तुम चारों एक साथ अपनी कविता सुनाओ“ महाराज ने कहा।
मन्न-मन्न रहँटा मन्नाइ..........................
तेली को बद्धा रौंछ कराइ...................
चरखा कातत आँखें बन्द........................
भोजराज तुम मूसरचन्द ........................
“ठीक है तुमने अपने मन की बात ही कविता में कही......वास्तव में तुम कविता की आत्मा को पहचानते हो..........तुम ने हमें एक नई दृष्टि भी दी है। भले ही तुमसे यह अनजाने मंे हुआ हो परन्तु तुमने साहस करके असलियत को तो सामने रख ही दिया है।” कहते हुए राज भोजराज ने बहुत सा ईनाम देकर घासीराम घसेरे को उसके तीनों साथियों के साथ विदा किया।
राजा भोज विचार करने लगे कि इस घसेरे कवि ने कितनी सही बात कही है, यदि योग्य और अयोग्य सब को सम्मानित किया जाता रहेगा तो योग्यता कुंठित हो जाएगी, कविता की ऐसी तैसी हो जाएगी और ऐसे ही घसेरे-लुटेरे, चोर-उचक्के, नचकैया-गवैया सब कवि बनकर कविता के नाम पर बकवास करना शुरू कर देंगे। चुटकुलों को कविता का नाम देकर मंचों पर सुनाते फिरेंगे। अश्लील शब्दों का प्रयोग करेंगे और गालियाँ देंगे.....परिणाम यह होगा कि साहित्य प्रेमी जन कविता से बिदकने लगेंगे तथा काव्यमंचों की जड़ ही ऐसे लोग खोदकर फेंक देंगे।.....इसलिए कविसम्मेलन के आयोजक की ही पूरी जिम्मेदारी होनी चाहिये कि वह ऐसी भड़ैंती करने वालों को कवि मंचों पर न चढ़ने दे और कविता की अर्थी निकालने के आयोजन न करे।..........मैं अब ऐसा नहीं करूँगा......इस घसेरे ने मेरी आँखें खोल दी हैं।
वर्तमान हिन्दी काव्यमंचों के व्यवस्थापक और संयोजक राजा भोज की इसी मानसिकता का अनुकरण कर रहे हैं। ऐसे कवि मंचों पर कविता बाँच रहे हैं जिन्हें वास्तव में कविता की बारहखड़ी तक नहीं आती है। अच्छे कवि आज मंचों पर आने से कतराने लगे हैं क्यों ऐसे ही घसियारे कवियों ने श्रोताओं का स्वाद बिगाड़ कर रख दिया है। एक कवि सम्मेलन में एक कवि ने कविता पढ़ी-
न मैं चाचा का हूँ, न भतीजा हूँ
मैं अपने बाप की गलतियों का नतीजा हूँ।।
क्या कहना चाहता है आज का यह मंचीय कवि?...........और क्या शिक्षा देना चाहता है जनता को? कविता का एक अनुशासन है, दन्द है, व्याकरण है, शिल्प और कथ्य की सुघड़ता है और है शब्दों का कलात्मक प्रयोग। लेकिन आज का काव्यमंच राज भोज का उदारवादी दरबार बन गया है जहाँ आम-घास जो चाहो सुनाओ और कवि कहलाओ।......राजा भोज तो संवेदनशील थे ‘भोजराज तुम मूसरचन्द’ सुनकर सँभल गए। पर आज के संयोजकों और व्यवस्थापकों को कौन समझाये कि तुम सबने कविता की ऐसी-तैसी खूब कर ली अब इसे अपने हाल पर छोड़ दो।
-डॉ० जगदीश व्योम
बी-12ए / 58 ए
सेक्टर-34, नोएडा
पिन कोड-201301
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